समकालीन हिंदी उपन्यास में उपनिवेशीकृत भारतीय संस्कृति

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श्यामलाल एम एस

Abstract

उपनिवेशीकृत भारत का इतिहास केवल राजनीतिक या आर्थिक गुलामी की ही कहानी नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक दमन, भाषिक संक्रमण और मानसिक गुलामी की भी दास्तान है। उपनिवेशवाद ने हमारी सांस्कृतिक परंपराओं में विकृतियाँ पैदा करने के साथ ही भारतीयों की आत्मचेतना, सोच और जीवन-दृष्टि को भी गहराई से प्रभावित किया। समकालीन हिंदी उपन्यासकारों ने इस सांस्कृतिक संकट को गहराई से अनुभव किया और अपने साहित्य के माध्यम से इन प्रभावों की पड़ताल की। समकालीन हिंदी उपन्यासों में उपनिवेशवाद के प्रभावों तथा भारतीय संस्कृति के उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का विश्लेषण करना इस आलेख का लक्ष्य है। औपनिवेशिक सत्ता ने भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और मानसिक संरचना को गहराई से प्रभावित किया है। समकालीन हिंदी उपन्यासकारों ने अपने लेखन में इन प्रभावों को उजागर किया है और भारतीय अस्मिता, परंपरा तथा भाविक चेतना की पुनर्परिभाषा करते हुए प्रतिरोध का स्वर दिया है। उपनिवेश के विरुद्ध भारतीय जनमानस की प्रतिक्रिया, प्रतिरोध और सांस्कृतिक पुनरुत्थान को भी उपन्यासकारों ने दर्शाया गया है। यह आलेख यह स्थापित करता है कि समकालीन हिंदी उपन्यास केवल साहित्यिक रचनाएँ नहीं हैं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण के माध्यम भी हैं, जो भारत की उपनिवेशीय वृत्तियों और आत्मचेतना के बीच संवाद स्थापित करते हैं।

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